ख़्वाहिश-ए-जादा-ए-राहत से निकलता कैसे दिल मिरा कू-ए-मलामत से निकलता कैसे साया-ए-वहम-ओ-गुमाँ चार तरफ़ फैला है मैं अभी कर्ब-ओ-अज़िय्यत से निकलता कैसे मेरी रुस्वाई अगर साथ न देती मेरा यूँ सर-ए-बज़्म मैं इज़्ज़त से निकलता कैसे मेरी नज़रें जो न पड़तीं तो वहाँ पिछली शब इक सितारा सा तिरी छत से निकलता कैसे मैं कि बर्बाद हुआ दीद की ख़ातिर जिस की वो मिरे दीदा-ए-हैरत से निकलता कैसे उस के दम ही से तो क़ाएम है मिरा जाह-ओ-जलाल वो मिरे दिल की हुकूमत से निकलता कैसे जाग बैठा हूँ तो दिल डूबा नहीं है 'अख़्तर' सोया रहता तो मुसीबत से निकलता कैसे