ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज वादी-ए-चश्म में है हसरत-ए-दीदार की गूँज ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज काश मेरी भी समाअत को ठिकाना दे दे दश्त-ए-महशर में तिरे साया-ए-दीवार की गूँज आहटें भी नहीं करते मिरे आमाल कभी एक आवाज़ निहाँ है मिरे किरदार की गूँज जब बहुत ग़ौर किया है तो सुनाई दी है मुफ़्लिस-ए-शहर की चुप में किसी ज़रदार की गूँज जिस ने सूखी हुई मिटी से बनाए कूज़े शहर-ए-ज़मज़म से उठी है उसी फ़नकार की गूँज एक मुद्दत से भटकती हुई फिरती है 'सलीम' कूचा-ए-दिल में मोहब्बत के तलब-गार की गूँज