ख़याल-ए-अज़्म-ए-सफ़र इख़्तियार करता है मिरे लिए भी कोई इंतिज़ार करता है वो आसमाँ के सितारों में चाँद जैसा है वहाँ से घर के अँधेरों पे वार करता है जिसे भुलाना ही मक़्सद मिरी हयात का था मिरा वजूद उसे अब भी प्यार करता है तिरे बग़ैर मिरी ख़्वाहिशें अधूरी हैं तिरा ही ज़िक्र मुझे बे-क़रार करता है मैं जानता हूँ वो वा'दे को भूल जाता है ये सच हमेशा मुझे अश्क-बार करता है उदास गाँव की गलियों का एक बूढ़ा फ़क़ीर 'शकील' मुझ पे सवालों के वार करता है