ख़याल गुज़रे कहाँ कहाँ का इरादा उन को हो गर यहीं का न कुछ ठिकाना मिरे गुमाँ का न कुछ ठिकाना मिरे यक़ीं का न शौक़ मुझ को है हूर-ए-ईं का न पास-ए-वाइज़ है अपने दीं का जो ज़िक्र करना है गर यहीं का सुना न झगड़ा कहीं कहीं का ख़राब कू-ए-बुताँ है ख़िल्क़त यहीं से पाते हैं रंज-ओ-राहत सिपहर-ए-गर्दिश में कर न जुरअत कि दौर आया है अब ज़मीं का शहीद होने की ये तमन्ना न दिल से निकलेगी देख लेना उठाए ख़ंजर वो हाथ में क्या न यार सँभले जब आस्तीं का हज़ार नाले ज़बाँ पे लाता हज़ार महशर अभी दिखाता शब-ए-जुदाई अगर न आता ख़याल उस चश्म-ए-सुर्मगीं का निशान-ए-पा-ए-अदू ने मारा कि तेरे दर पर नहीं गवारा झुके जो सज्दे को सर हमारा मिटाएँ लिक्खा हुआ जबीं का कहूँ मतालिब सब अपने जी के ये शर्त कीजे कि हाँ न कीजे कहो नहीं फिर उसी तरह से मुझे है सुनना नहीं नहीं का जो पूछे मुझ सा है कोई बद-ज़न कहो न अहवाल-ए-वस्ल-ए-दुश्मन ये मैं ने माना कि तुम हो पुर-फ़न इलाज क्या चश्म-ए-शर्मगीं का मिलेगी महशर में दाद अब क्या अदा-ए-मतलब में हूँ मैं उलझा बयान पहले ही क्यूँ किया था तुम्हारे गेसू-ए-अम्बरीं का बयान-ए-लुत्फ़-ए-अदू जफ़ा है ये तुम से सौ-बार कह दिया है फिर अब की सुन लो नहीं रहा है हमें भी ज़ब्त आह-ए-आतशीं का अजब है 'सालिक' भी रिंद-मशरब कि छोड़ बैठा है मिल्लतें सब न मानता है किसी का मज़हब न है ये पाबंद अपने दीं का