ख़याल है कि हक़ीक़त है या फ़साना है वो नीस्ती हो कि हस्ती तिलिस्म-ख़ाना है नज़र का फ़र्क़ मन-ओ-तू का फ़र्क़ है शायद वही सराब वही गंज-ए-आब-ओ-दाना है जो ठहर जाए तो है तौसन-ए-ख़याल कोई जो रौ में हो तो ये सूरत-गर-ए-ज़माना है फ़साद-ए-हिर्स नहीं क़स्र-ए-शहर तक महदूद कि इस लपेट में आलम का कारख़ाना है मुझे तो यूँ भी ख़राब-ए-शबाब होना था तिरे जमाल का जादू तो इक बहाना है दिलों का रब्त नहीं बे-तकल्लुफ़ी है ये कभी कभी की मुलाक़ात दोस्ताना है