ख़याल था कि गुमाँ को यक़ीं बना दूँगा और अब ये ख़्वाब लिखूँगा भी तो मिटा दूँगा मुझे भी साथ ही ले लो मगर नहीं यारो मैं सुस्त-रौ हूँ तुम्हारी थकन बढ़ा दूँगा हवा-ए-शब मिरे शोले से इंतिक़ाम न ले कि मैं बुझा तो उफ़ुक़ तक धोवें उड़ा दूँगा बड़े शबाब से आएगा सैल-ए-रंग अब के फिर इस में मैं भी तो इक जू-ए-ख़ूँ मिला दूँगा चलो ख़मोश हुआ मैं अब इस सुकूत के ब'अद न शब को तूल न हम-साए को सदा दूँगा