ख़याल उस का कहाँ से कहाँ नहीं जाता वहाँ भी जाए कि जिस जा गुमाँ नहीं जाता बस अपने बाग़ में महव-ए-ख़िराम रहता है कि ख़ुद से दूर वो सर्व-ए-रवाँ नहीं जाता हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक़्त के आगे मगर वो ज़ख़्म कि जिस का निशाँ नहीं जाता न जाने उस की ज़बाँ में है क्या असर 'फ़र्रुख़' कि उस से हो के कोई बद-गुमाँ नहीं जाता