उलझाओ का मज़ा भी तिरी बात ही में था तेरा जवाब तिरे सवालात ही में था साया किसी मकीं का भी जिस पर न पड़ सका वो घर भी शहर-ए-दिल के मज़ाफ़ात ही में था इल्ज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था यारों को इंहिराफ़ का जिस पर रहा ग़ुरूर वो रास्ता भी दश्त-ए-रिवायात ही में था अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ था रब्त-ए-जान-ओ-दिल तो शुरूआ'त ही में था मुझ को जो क़त्ल कर के मनाता रहा है जश्न वो बद-निहाद शख़्स मिरी ज़ात ही में था