ख़याल-ए-अंजाम-ए-आरज़ू था कि एक झोंका था तेज़ लू का झुलस गया वो हसीन पौदा जो नाज़-पर्वर्दा था नुमू का हज़ारों इस मय-कदे में आ कर चले गए तिश्नगी बुझा कर मगर मिरा नाज़-ए-तिश्ना-कामी तवाफ़ करता रहा सुबू का हिकायत-ए-चश्म-ए-नाज़ तुझ से हदीस-ए-राज़-ओ-नियाज़ तुझ से ये सोज़ तुझ से ये साज़ तुझ से कि तू मुहर्रिक है आरज़ू का नज़र के जादू सुला दिए हैं दिलों के शो'ले बुझा दिए हैं हिजाब हम ने उठा दिए हैं तिलिस्म तोड़ा है रंग-ओ-बू का हसीन होंटों की थरथराहट से दहन-ए-शाइ'र में थरथरी है सुरूर छाया हुआ है दिल पर किसी की ख़ामोश गुफ़्तुगू का हक़ीक़त आएगी सामने जब तो फिर फ़साना कहाँ रहेगा तुम्हारा अफ़्सूँ रहे सलामत तिलिस्म तोड़ो न रंग-ओ-बू का तबीअत इक अंजुमन बनी है हयात 'एहसाँ' दुल्हन बनी है तमाम दुनिया चमन बनी है ये फ़ैज़ है किस की आरज़ू का