समझ सकते नहीं जो तेरे माथे की शिकन साक़ी वो क्या जानें कि है बादा-कशी भी एक फ़न साक़ी निकाल उन को सुबू-ओ-जाम में जो फ़र्क़ करते हैं तमीज़-ए-बेश-ओ-कम है अक़्ल का दीवाना-पन साक़ी तकल्लुफ़ बरतरफ़ हम शौक़ की मस्ती से डरते हैं यही है राहबर साक़ी यही है राहज़न साक़ी नज़र आती है सारी काएनात-ए-मय-कदा रौशन ये किस के साग़र-ए-रंगीं से फूटी है किरन साक़ी हक़ीक़त एक है सब की वो मा'बद हो कि मय-ख़ाना बनाती आ रही हैं मंज़िलें मेरी थकन साक़ी उठा ले जाम-ओ-मीना ख़त्म कर ये दौर-ए-मय-नोशी कि याद आते हैं मुझ को तिश्ना-कामान-ए-वतन साक़ी पस-ए-ख़ुम बैठ कर 'एहसान' को कुछ सोच लेने दे छिड़ा है मय-कदे में क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन साक़ी