ख़याल-ए-हुस्न ज़रूरी है ज़िंदगी के लिए चराग़ ले लो अंधेरे में रौशनी के लिए छुपाए से भी कहीं इश्क़-ओ-मुश्क छुपते हैं सवाल बन गई बे-पर्दगी किसी के लिए मुझे जो फ़ैज़ उठाना है मैं उठा लूँगा ग़रज़ निगाह-ए-करम है वो अब किसी के लिए वो दिल नज़र से गिरा दें तो ग़म की बात नहीं ये जाम वज़्अ हुआ है शिकस्तगी के लिए बहकने लगती है दुनिया शराबियों की तरह नज़र उठाना भी दुश्वार है किसी के लिए ज़माना जब कभी आमादा-ए-फ़रेब हुआ किसी ने पर्दा उठाया है आगही के लिए सुरूर-ए-चश्म-ए-निगाराँ न पूछिए 'मानी' तबीअत आज भी मौज़ूँ है शाइ'री के लिए