ख़याल-ए-ज़ेहन-शिकन से ज़बान भर आ जाए ये हो तो हाथ मिरे कोई शेर-ए-तर आ जाए हमारे मिटने से दुनिया हुई है ऐसी निहाँ कि जैसे बीज से बाहर कोई शजर आ जाए बनाई मैं ने जो बे-सूरती के पत्थर से मैं क्या करूँ इसी मूरत पे दिल अगर आ जाए चमन तमाम तो आहट पे उस की झूम उठा यहाँ ये ख़ब्त वो सैल-ए-हवा नज़र आ जाए भँवर मुसिर है कि आग़ोश-ए-तंग में दरिया तमाम वुसअ'त-ए-नख़वत समेट कर आ जाए कशिश भी उस की ग़ज़ब रोब-ए-हुस्न भी ऐसा कि सामना ही न कर पाऊँ वो अगर आ जाए रहोगे फिर भी 'मुहिब' सत्ह-ए-बहर ही से दो-चार अगर तुम्हारे लिए तह भी सत्ह पर आ जाए