ख़याल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार भी नहीं बाक़ी वो कश्मकश है कि इक तार भी नहीं बाक़ी चमन को रौंद गए क़ाफ़िले बहारों के गुलों का ज़िक्र ही क्या ख़ार भी नहीं बाक़ी लगी हुई हैं ज़मीर-ए-हयात पर मोहरें किसी में जुरअत-ए-इज़हार भी नहीं बाक़ी कभी कभी जो रग-ए-जाँ से फूट पड़ता है वो नग़्मा-ए-रसन-ओ-दार भी नहीं बाक़ी हमें तो कुफ़्र का ता'ना दिया था वाइ'ज़ ने हरम में अब कोई दीं-दार भी नहीं बाक़ी लुटा जो अपना गुलिस्ताँ तो हम ने ये समझा कोई बहिश्त उफ़ुक़ पार भी नहीं बाक़ी गुज़र गए वो सुख़न-फ़हमियों के हंगामे कोई किसी का तरफ़-दार भी नहीं बाक़ी