ख़यालिस्तान-ए-हस्ती में अगर ग़म है ख़ुशी भी है कभी आँखों में आँसू हैं कभी लब पर हँसी भी है इन्ही ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा अँधेरी रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है यूँही तकमील होगी हश्र तक तस्वीर-ए-हस्ती की हर इक तकमील आख़िर में पयाम-ए-नेस्ती भी है ये वो साग़र है सहबा-ए-ख़ुदी से पुर नहीं होता हमारे जाम-ए-हस्ती में सरिश्क-ए-बे-ख़ुदी भी है