ख़याल-ओ-ख़्वाब से निकलूँ ज़ुहूर तक देखूँ सफ़र के दाएरे तोड़ूँ उबूर तक देखूँ मिरे लिए हैं ये हफ़्त-आसमाँ-ओ-हफ़्त-ज़मीं तो किस लिए तिरे जल्वे मैं तूर तक देखूँ समझ सका हूँ तुझे बस शुऊ'र की हद तक ये फ़िक्र है कि तुझे ला-शुऊ'र तक देखूँ रगें चटख़ गईं रिश्तों की शोरिशें कैसी सदा लहू की जो आए तो दूर तक देखूँ उलझ न जाऊँ कहीं रेशमी ख़यालों में तिरा 'जमाल' पस-ए-रंग-ओ-नूर तक देखूँ