शहर की वीराँ सड़क पर जश्न-ए-ग़म करते हुए जा रहा हूँ ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ को नम करते हुए ज़िंदगी तन्हा सफ़र पर गामज़न होती हुई और हम यादों को पिछली हम-क़दम करते हुए बोल उठते हैं कई बरसों पुराने ज़ख़्म भी दिल हो जब मसरूफ़ अपनी चुप रक़म करते हुए उस का भी कहना यही बर्बाद हो जाओगे तुम और हम भी ठीक वैसा दम-ब-दम करते हुए मेहरबानी लाज़मी है ख़ुद भी अपनी ज़ात पर हर्ज कैसा आप अपने पर करम करते हुए दंग रह जाओगे तुम अपने करम-फ़रमा को जब देख लोगे इक दफ़ा घर में सितम करते हुए ऐन-मुमकिन है तड़प उठना हमारा एक दिन याद में अल्लाह की याद-ए-सनम करते हुए जाने किस दम ले उड़े ये मौत का झोंका 'अमर' एक दिन ख़ाक-ए-बदन को ख़ुद में ज़म करते हुए