खेल में कुछ तो गड़बड़ थी जो आधे हो कर हारे लोग आधे लोग निरी मिट्टी थे आधे चाँद सितारे लोग इस तरतीब में कोई जानी बूझी बे-तरतीबी थी आधे एक किनारे पर थे आधे एक किनारे लोग उस के नज़्म-ओ-ज़ब्त से बाहर होना कैसे मुमकिन था आधे उस ने साथ मिलाए आधे उस ने मारे लोग आज हमारी हार समझ में आने वाली बात नहीं उस के पूरे लश्कर में थे आधे आज हमारे लोग किस के साथ हमारी यक-जानी का मंज़र बन पाता आधे जान के दुश्मन थे और आधे जान से प्यारे लोग इन पर ख़्वाब हवा और पानी की तब्दीली लाज़िम है आधे फीके बे-रस हो गए आधे ज़हर तुम्हारे लोग आधी रात हुई तो ग़म ने चुपके से दर खोल दिए आधों ने तो आँख न खोली आधे आज गुज़ारे लोग आधों आध कटी यकजाई फिर दूजों ने बीचों-बीच आधे पाँव के नीचे रक्खे आधे सर से वारे लोग ऐसा बंद-ओ-बस्त हमारे हक़ में कैसा रहना था हल्के हल्के चुन कर उस ने आधे पार उतारे लोग कुछ लोगों पर शीशे के उस जानिब होना वाजिब था धार पे चलते चलते हो गए आधे आधे सारे लोग