खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में हुबाब आ कर बने हर सम्त से बुलबुल समुंदर में हमारे आह-ओ-नाला से ज़माना है तह-ओ-बाला कभी है शोर सहरा में कभी है ग़ुल समुंदर में किसी दिन मुझ को ले डूबेगा हिज्र-ए-यार का सदमा चराग़-ए-हस्ती-ए-मौहूम होगा गुल समुंदर में न छेड़ो मुझ को मैं ग़व्वास हूँ दरिया-ए-मअनी का न ढूँडो मुझ को मुसतग़रक़ हूँ मैं बिल्कुल समुंदर में तुम्हें दरिया-ए-ख़ूबी कह दिया ग़र्क़-ए-नदामत हूँ कहाँ ये नाज़-ओ-ग़म्ज़ा आरिज़-ओ-काकुल समुंदर में पड़ा था अक्स-ए-रू-ए-नाज़नीं अर्सा हुआ उस को पर अब तक तैरता फिरता है शक्ल-ए-गुल समुंदर में उठी मौज-ए-सबा जुम्बाँ से शाख़-ए-आशियाँ पैहम चली जाती है गोया कश्ती-ए-बुलबुल समुंदर में वो पाईं बाग़ में फिरते हैं मैं फ़िक्रों में डूबा हूँ तमाशा है कि गुल गुलशन में है बुलबुल समुंदर में अभी तो सैर को जाना लब-ए-दरिया वो सीखे हैं अभी तो देखिए खिलते हैं क्या क्या गुल समुंदर में ख़याल-ए-यार क्यूँ-कर आ गया तूफ़ान-ए-गिर्या में ख़ुदा मालूम किस शय का बनाया पुल समुंदर में कभी गिर्या का तूफ़ाँ है कभी हैरत का सन्नाटा कभी बिल्कुल हूँ सहरा में कभी बिल्कुल समुंदर में वो ज़ालिम आशिक़-आज़ारी की 'परवीं' मश्क़ करता है दिखा कर बुलबुलों को डालता है गुल समुंदर में