खींच कर मुझ को हर इक नक़्श-ओ-निशाँ ले जाए क्या पता ज़ौक़-ए-सफ़र मेरा कहाँ ले जाए काम ये हर कस-ओ-ना-कस के नहीं है बस का जिस को सच कहना हो ख़ंजर पे ज़बाँ ले जाए सिर्फ़ इक बार तबस्सुम वो उछाले तो इधर और बदले में मिरा सारा जहाँ ले जाए जिस को दिखलानी हो दुनिया को शुजाअ'त अपनी वही सर अपना सर-ए-नोक-ए-सिनाँ ले जाए कहीं रौशन नज़र आते नहीं अब सर के चराग़ अर्सा-ए-जंग से वो ख़ुद को कहाँ ले जाए अपनी ग़ज़लों में जिसे रंग-ए-क़ुज़ह भरना हो वो 'मुबारक' मिरा एजाज़-ए-बयाँ ले जाए