ख़िरद की धुंद में अक्स-ए-रुख़-ए-सहर तो मिला जुनून-ए-शौक़ तुझे कोई हम-सफ़र तो मिला जला गया है कोई रेत पर लहू से चराग़ रह-ए-जुनूँ में कोई नक़्श-ए-मोतबर तो मिला तुम्हारे शहर में सोता हूँ पाँव फैला कर कोई मकाँ न मिला साया-ए-शजर तो मिला किसी से दिल कहाँ मिलता है इस ज़माने में ख़ुलूस लाख तसन्नो सही नज़र तो मिला ग़म-ए-हयात के गेसू सँवर ही जाएँगे निगार-ए-शाम को आईना-ए-सहर तो मिला हुनर ख़रीद के लाएँगे बे-हुनर कितने हमारे शहर को इक साहब-ए-हुनर तो मिला उतार लाया बुलंदी से उस को ऐ 'हामी' वो आसमान का तारा ज़मीन पर तो मिला