ख़िरद के मकतब में ज़िंदगी के शुऊ'र की आगही नहीं है चराग़ ताक़ों पे जल रहे हैं मगर कहीं रौशनी नहीं है तुम्हारा मस्लक है बुत-परस्ती हम अपने हाथों को पूजते हैं ख़ुदा बनाते हैं पत्थरों को ये फ़न्न-ए-दस्त-ए-ख़ुदी नहीं है तुम्हारे अहद-ए-शबाब को हम ख़मोश नज़रों से देखते हैं इसे भी तुम एहतिजाज समझो ये ख़ामुशी ख़ामुशी नहीं है मैं रंज-ओ-ग़म में भी मुस्कुरा कर फ़रेब देता हूँ ज़िंदगी को जो मेरे होंटों पे मुर्तइश है वो मौज-ए-ग़म है हँसी नहीं है ये बिखरे बिखरे से ख़ुश्क पत्ते अलामतें हैं तबाहियों की रविश रविश गुल्सिताँ की 'हामी' ख़िज़ाँ ख़िज़ाँ चीख़ती नहीं है