ख़िज़ाँ की शाम के मंज़र को भर डाला परिंदों ने उफ़ुक़ को और भी तारीक कर डाला परिंदों ने मुझे फिर कौन सी मिट्टी में अब के सर उठाना है ये इक क़र्ज़ा भी मेरे नाम पर डाला परिंदों ने लहू में कुछ न हो फिर भी लहू की बू तो होती है ख़ुद अपने ही लहू को ख़्वार कर डाला परिंदों ने थके-हारे जहाँ शब-भर बसेरा करने आए थे चरिन्दों की तरह वो खेत चर डाला परिंदों ने वो रुत आई हवा सब हो गए पत्ते दरख़्तों के मगर यूँ भी हुआ शाख़ों को भर डाला परिंदों ने ये कोशिश थी कि बाहम दाम को ही ले उड़ें लेकिन तने हल्क़ों को इतने में कुतर डाला परिंदों ने हमें मालूम है कब कौन दहशत-गर्द बनता है शिकम की आग को हथियार कर डाला परिंदों ने वहाँ 'शाहीन' छाजों देर तक रहमत बरसती है सर-ए-गुलज़ार ध्यान अपना जिधर डाला परिंदों ने