नज़र शाइस्ता-ए-ग़म हो रही है मगर पहचान अपनी खो रही है फ़िराक़-ए-दोस्त की ये आख़िरी शब न जाने कब की नींदें सो रही है जिसे गुस्ताख़ हो जाना रवा था वो आँख अब तक क़सीदा-गो रही है बड़ी जोखिम है थोड़ा फ़ासला भी मसाफ़त जाँ-ब-जाँ तय हो रही है ये सारा तज्ज़िया ये बहस-ओ-तकरार हवस पुशतारे क्या क्या ढो रही है यहाँ से उठ के जाना सानेहा था यहाँ आ कर भी वहशत हो रही है ज़मिस्ताँ है तिरी यादों का मौसम बहुत मसरूफ़ियत हम को रही है लपेटे उज़्र में अपने मह-ओ-साल गए मौसम की चाहत सो रही है तिरे ग़म से कि है अब यूँ गुरेज़ाँ हमारी वाक़फ़िय्यत तो रही है जहाँ मीलों नहीं कोई पड़ोसी ख़िज़ाँ क्यूँ किश्त-ए-लाला बो रही है सर-ए-आब-ए-रवाँ बद-एहतियाती धुले धब्बों को फिर से धो रही है अकेले थे तो जी लगता नहीं था मगर अब शाम रुस्वा हो रही है हिला कर शोर-ए-गिर्या से ज़मीं को पस-ए-दीवार ख़िल्क़त सो रही है बदल कर रंग-ए-रुख़ 'शाहीन' अपना ये शब बे-माया कितनी हो रही है