ख़िज़्र से कब है छुपा कुछ मिरी मंज़िल के सिवा जिस से वाक़िफ़ नहीं कोई भी मिरे दिल के सिवा हम क़लंदर हैं जहाँ चाहेंगे जा बैठेंगे और भी तो हैं ठिकाने तिरी महफ़िल के सिवा जान देना है तो फिर मिन्नत-ए-क़ातिल ही क्यों और भी तो हैं वसाइल कफ़-ए-क़ातिल के सिवा कौन है नाक़ा-नशीँ कौन समझ पाए इसे जब नज़र आए न कुछ पर्दा-ए-महमिल के सिवा शहर के दूसरे रुख़ को भी फ़रामोश न कर झोंपड़े भी हैं फ़लक-बोस मनाज़िल के सिवा ज़ोर-ए-बाज़ू को ज़रा उस के भी देखें क्या हर्ज बंद राहें हैं जो सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा है ज़रूरी कि हो ताईद-ए-ख़ुदावंदी भी काम बनने के लिए अपने वसाइल के सिवा चुप न होगा है 'वली' वक़्त का अपने सुक़रात कुछ इलाज उस का नहीं ज़हर-ए-हलाहिल के सिवा