खो जाएँगे हम तुम भी मिलने का ये पल जैसे खो जाता है माज़ी में बीता हुआ कल जैसे आओ मेरी बाहों में यूँ आ के सिमट जाओ आग़ोश में जमुना के है ताज-महल जैसे दीवाना मुझे कह कर महफ़िल से उठाते हो तुम क्यों नज़र आते हो 'हाफ़िज़' की ग़ज़ल जैसे फ़ुर्क़त का तो इक लम्हा सदियों को समेटे है ऐ दोस्त मसर्रत की इक उम्र है पल जैसे आँखों का है ये मंज़र होंटों का है ये आलम पानी में कँवल जैसे महफ़िल में ग़ज़ल जैसे हालात 'सईद' अपने कुछ ऐसे ही उलझे हैं बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों में पड़ जाते हैं बल जैसे