ग़ुबार-ए-राह-ए-वफ़ा आसमाँ सा लगता है हर एक ज़र्रा यहाँ कहकशाँ सा लगता है ये फ़ासला मुझे जाने कहाँ पे ले जाए वो फ़ासला जो तिरे दरमियाँ सा लगता है मिरे बड़ों की दुआओं का ये करिश्मा है कि सर पे मुझ को सदा साएबाँ सा लगता है नई उड़ान ने यूँ दूर कर दिया घर से कि आसमाँ मुझे अपना मकाँ सा लगता है यक़ीन जानिए हम दिल-जलों की बातों से कभी धुआँ नहीं उठता धुआँ सा लगता है मिरे मकाँ में भी खिलते हैं रंग रंग के फूल मिरा मकान भी हिन्दोस्ताँ सा लगता है 'सईद' मुझ को तो अब ज़िंदगी का हर लम्हा यक़ीं सा होते हुए भी गुमाँ सा लगता है