खो कर तिरी गली में दिल-ए-बे-ख़बर को मैं फ़िक्र-ए-ख़ुदी से छूट गया उम्र भर को मैं साज़िश ब-क़द्र-ए-रब्त थी तूर ओ जमाल में समझा हूँ आज उक़्दा-ए-संग-ए-शरर को मैं अब है तो मुस्तक़िल हो फ़रोग़-ए-शब-ए-विसाल ऐसा न हो चराग़ जलाऊँ सहर को मैं सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा क्यूँ ऐ जुनूँ यहीं न उठा लाऊँ घर को मैं झूमा क्या सुरूर से 'सीमाब' रात भर देखा किया किसी की नशीली नज़र को मैं