खोलेगा राज़ कौन तिरी काएनात के लाले पड़े हुए हैं यहाँ अपनी ज़ात के यूँ रूई से ख़याल को रखता हूँ कात के उड़ते फिरें रोएँ न कहीं मेरी बात के सब मुंतज़िर हैं ऐसी किसी अपनी मात के खुल जाएँ सब भरम किसी राह-ए-नजात के सुनता हूँ मुझ से माँगती है मौत भी पनाह वो परख़च्चे उड़ाए हैं मैं ने हयात के ख़ुद को समेटने के बखेड़े में क्यूँ पड़े काहे को हो के रह न गए हादसात के इन आँधियों पे ज़ोर चमन का तो कुछ न था क़िस्से बिखर गए हैं मगर पात पात के कम ये भी तो ख़लाओं में तख़्लीक़ से नहीं जैसे महल किए हैं खड़े मुश्किलात के इस से ज़ियादा रेत के तूफ़ान तुझ में हैं झरने तिरी निगाह में जितने हैं ज़ात के नौहा-कुनाँ अज़ल से अंधेरों में हैं सदाएँ ये दुख तो हैं सदाओं की बस एक रात के टकराव बे-सबब जो नज़र और दिल का था अफ़्साने सब ने घड़ लिए एक रात के सच सच बता कि 'तल्ख़' ये दिल की नवा में यूँ कैसे किए हैं जम्अ ये दुख काएनात के