सोज़-ए-दरूँ को आँख से बाहर निकाल कर हर शाख़ रख रही है गुल-ए-तर निकाल कर लाए हुसैन आख़िरी लश्कर निकाल कर खे़मे से तिश्ना-लब अली असग़र निकाल कर थोड़े ही दिन है शाख़-ए-शजर पर ये नग़्मगी उड़ जाएँगे ये लोग नए पर निकाल कर अहल-ए-नज़र के सामने रखता हूँ देख लें लाया हूँ मुश्त-ए-ख़ाक से गौहर निकाल कर यूँ भी हो मुझ को चश्म-ए-फ़ना ढूँढती फिरे रख दूँ मैं रूह-ए-जिस्म से बाहर निकाल कर इस दास्ताँ में और तो कुछ भी नया नहीं उस के बिछड़ते वक़्त का मंज़र निकाल कर करता हूँ सज्दा आप मैं अपने जमाल को पत्थर से इक ख़याल का पैकर निकाल कर अब शाइ'री में और किसी को भी दें जगह मज्ज़ूब-ओ-मस्त-ओ-फ़क़्र-ओ-क़लंदर निकाल कर शहरों की बूद-ओ-बाश ने वहशी किया उसे फिरता है क़ैस हाथ में ख़ंजर निकाल कर