ख़ुद अपनी जान का आज़ार हो के रह गया है मैं हूँ वो क़िला जो मिस्मार हो के रह गया है नहीं है हर्फ़-ए-शिकायत किसी के होंटों पर हर आदमी दर-ओ-दीवार हो के रह गया है कहाँ से आ गई आख़िर फ़ज़ा में इतनी घुटन कि साँस लेना भी दुश्वार हो के रह गया है हमारे हाथ लगी है ये क्या मसीहाई जिसे भी देखिए बीमार हो के रह गया है घरों पे अब कोई तन्क़ीद की भी कैसे जाए कि घर तो रिश्तों का बाज़ार हो के रह गया है सियासियात में सब से बड़ा जो नाम है आज हमारे बीच अदाकार हो के रह गया है कहा गया जिसे हिन्दोस्ताँ का दिल 'शाहिद' वो शहर शहर-ए-गुनहगार हो के रह गया है