जो तुझ में ख़ास था सब मुझ पे आम हो चुका है ऐ ज़िंदगी तिरा क़िस्सा तमाम हो चुका है ऐ रूह तेरे बदन छोड़ने का डर कैसा इक एक साँस का जब इंतिज़ाम हो चुका है वो हम ग़रीबों से अब कोई बात कैसे करे अमीर-ए-शहर से जो हम-कलाम हो चुका है अब उस से रक्खें भी क्या ज़िंदगी की हम उम्मीद वो जिस की ज़ात से जीना हराम हो चुका है ये टूटे फूटे हुए शेर अब सुनाऊँ किसे कि जिस को देखो ग़ज़ल का इमाम हो चुका है हमारे बाद की नस्लों को क्या ग़रज़ इस से बड़ों का होना था जो एहतिराम हो चुका है फिर इस के बाद तो आनी है रात ही 'शाहिद' अगर ये सच है कि अब वक़्त-ए-शाम हो चुका है