ख़ुद दर्द ही को दर्द का दरमाँ बना दिया मैं ने ग़म-ए-हयात को आसाँ बना दिया काम आया उन का ग़म भी ग़म-ए-रोज़गार भी दोनों ने मिल के मुझ को ग़ज़ल-ख़्वाँ बना दिया मुझ को दयार-ए-शौक़ से जितने भी ग़म मिले उन सब को अपनी ज़ीस्त का सामाँ बना दिया वहशत टपक रही है दर-ओ-बाम ओ सक़्फ़ से वो क्या गए कि घर को बयाबाँ बना दिया शर्मिंदा आप हों न कहीं इस ख़याल से एक एक ज़ख़्म को गुल-ए-ख़ंदाँ बना दिया चश्म-ए-करम किसी की बड़ी चारा-साज़ थी ज़र्रा था 'ताज' महर-ए-दरख़्शाँ बना दिया