कभी तो ज़ेहन में आकर निकल गए अल्फ़ाज़ कभी ख़ुद आप ही शे'रों में ढल गए अल्फ़ाज़ जिन्हें समझता था तख़्ईल के मुआविन हैं क़रीब आ के वही अब बदल गए अल्फ़ाज़ न जाने कौन सी मैं बात कहने वाला था नज़र किसी पे पड़ी तो सँभल गए अल्फ़ाज़ ये सच है फंदे वही आदमी के बनते हैं ग़लत जो उस की ज़बाँ से निकल गए अल्फ़ाज़ तुम्हारे शहर में जो कुछ भी मैं ने देखा है बयान करने में उन को दहल गए अल्फ़ाज़ सुनेगा कौन सुनाएगा कौन अब उन को कि सब के साथ ही शो'लों में जल गए अल्फ़ाज़ ग़ज़ल सुनाई है पुर-सोज़ 'ताज' ने ऐसी कि आज आँखों में उन की पिघल गए अल्फ़ाज़