ख़ुद ही ये दर्द-ए-सर क़ुबूल किया हर अज़ाब-ए-सफ़र क़ुबूल किया कौन है जिस की खोज में हम ने घूमना दर-ब-दर क़ुबूल किया न तो मैं ही कहूँ न दिल मेरा किस ने किस का असर क़ुबूल किया घूमना कूचा-ए-मलामत में हम ने क्या सोच कर क़ुबूल किया हम ने दो दिन की ज़िंदगी के लिए कितना लम्बा सफ़र क़ुबूल किया मा'नी-ए-ज़ीस्त ही बदल देंगे हम ने जीना अगर क़ुबूल किया दीद की चाह में इन आँखों ने हर फ़रेब-ए-नज़र क़ुबूल किया इस इबादत के फ़र्ज़ को 'राहत' मन नहीं था मगर क़ुबूल किया