ख़ुदा-ए-पाक अभी इतना मेहरबान तो है हमारे सर ये किराए का साएबान तो है अटक अटक के सही कुछ तो बोल लेता हूँ कि टूटी-फूटी सी मेरी भी इक ज़बान तो है बचा के रक्खा है अस्लाफ़ की अमानत को हमारे घर में बुज़ुर्गों का पानदान तो है ख़ुदा के बंदे ख़ुदाई पे फ़ख़्र पैदा कर तिरी ज़मीं न सही तेरा आसमान तो है किसी का जज़्बा-ए-उल्फ़त किसी का जोश-ए-जुनूँ अभी जवान हुआ था अभी जवान तो है समझ के इस को हुक़ूक़-उल-इ'बाद ज़िंदा हूँ मिरी गली में पड़ोसी का नाब-दान तो है यहीं पे बैठ परिंदे शिकार कर 'हमज़ा' यहाँ पे शेर नहीं शेर का मचान तो है