ख़ुदा की शान है इन में अगर मेह्र-ओ-वफ़ा होती तो फिर ये बुत जिधर होते उधर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा होती जफ़ा वो तर्क करते गर उन्हें क़द्र-ए-वफ़ा होती नज़र नीची तो जब होती कि आँखों में हया होती हज़ारों गालियाँ वो दे रहे थे बे-ख़ता मुझ को जो पूछा बात क्या है जल के बोले बात क्या होती तिरा वा'दा हमारी आरज़ू बेकार हैं दोनों जो ये होता तो क्या होता जो वो होती तो क्या होती ख़ुदा ने ख़ैर कर ली होते होते रह गई हुज्जत मिरी उन की अगर होती तो फिर बे-इंतिहा होती अदू का ज़िक्र ख़ुद छेड़ा है ख़ुद ही मुझ से बिगड़े हैं ग़ज़ब होता अगर मेरी तरफ़ से इब्तिदा होती न लेता नाम भी 'महमूद' उन काफ़िर बुतों का तू समझ गर तुझ में थोड़ी भी अरे मर्द-ए-ख़ुदा होती