ख़ुदा मालूम जब ग़ुंचे हँसे शबनम पे क्या गुज़री तबस्सुम की फ़ज़ा में दीदा-ए-पुर-नम पे क्या गुज़री जली शाख़-ए-नशेमन तक नशेमन की रिफ़ाक़त में पता क्या बिजलियों को हम-सफ़ीरो हम पे क्या गुज़री न पाया फ़र्क़ असीरी और आज़ादी में जब कोई कहूँ क्या उस घड़ी अपने दिल-ए-पुर-ग़म पे क्या गुज़री अज़ीज़-ए-मिस्र क्या जाने ये पूछो पीर-ए-कनआँ' से कि फ़ुर्क़त में पिसर की दीदा-ए-पुर-नम पे क्या गुज़री उसे महसूस कर सकता भला क्या ज़ौक़-ए-इबलीसी कि जन्नत से निकलने में दिल-ए-आदम पे क्या गुज़री नशेमन की न छोड़ी ख़ाक भी बर्क़-ए-हवादिस ने ये मंज़र देख कर हम क्या बताएँ हम पे क्या गुज़री न सुलझे तुम ने सुलझाने को वैसे लाख सुलझाया मिरी वहशत से देखो गेसू-ए-बरहम पे क्या गुज़री जो हो बे-दर्द उस को दर्द का एहसास क्यूँकर हो सितमगर की बला जाने सितम से हम पे क्या गुज़री ग़म-ए-जानाँ ही क्या कम था ग़म-ए-दौराँ भी अपनाया ख़ुदा जाने असीर-ए-गेसू-ए-पुर-ख़म पे क्या गुज़री हमारी एक जुरअत ने जो ज़ौक़-ए-ज़िंदगी बदला बताएँ क्या दिल-ए-ना-आश्ना-ए-ग़म पे क्या गुज़री सबब यारान-ए-साहिल ऐ 'नज़ीर'-ए-ज़ार क्या जानें कि तूफ़ान-ए-बला में डूबतों के दम पे क्या गुज़री