खुले जो आह में बाब-ए-असर न पहचाने ख़ुशी का रंग ग़म-ए-मो'तबर न पहचाने उड़े जो चील तो देखे लहू की झील में अक्स शफ़क़ ढले तो शरीक-ए-सफ़र न पहचाने उगें जो फूल तो धरती भली भली सी लगे ज़मीं का दर्द-ए-तसव्वुर मगर न पहचाने हवस कि ज़ीस्त करे रेल के सफ़र की तरह सफ़र के बा'द शरीक-ए-सफ़र न पहचाने तमाम-रात का जलता हुआ दिया न बुझे शब-ए-फ़िराक़ नवेद-ए-सहर न पहचाने निगाह जाती तो है रुक न जाइयो उस पास पलट भी आइयो जो वो नज़र न पहचाने