खुली लाशों का क़ब्रिस्तान बन के By Ghazal << कोई जुगनू कोई दीपक किरन ह... हर तरफ़ है फ़ुसूँ मोहब्बत... >> खुली लाशों का क़ब्रिस्तान बन के बहुत चुप है ज़मीं वीरान बन के शरीक़-ए-मजलिस-ए-दरवेश हो कर तिरे दर जाएँगे मेहमान बन के है ये ख़ूँ की नदी तख़्लीक़ तेरी कहाँ तू चल दिया अंजान बन के यहाँ पर आग है मेरी लगाई कि हूँ शर्मिंदा मैं इंसान बन के Share on: