खुलती नहीं हैं कलियाँ शाख़ें नहीं महकतीं चिड़ियाँ नहीं चहकतीं सुब्हें नहीं महकतीं आँखों में बस गए हैं कुछ ख़्वाब फूल जैसे फिर क्या सबब है मेरी शामें नहीं महकतीं फ़स्ल-ए-बहार जिस पर करती थी आशियाना वो पेड़ आज भी है शाख़ें नहीं महकतीं चेहरा हसीन हो तो ग़ाज़े की क्या ज़रूरत शायद इसी बिना पर ग़ज़लें नहीं महकतीं ग़ुंचा-दहन मिलेंगे यूँ तो बहुत से लेकिन 'नुसरत' हर आदमी की बातें नहीं महकतीं