ख़ुलूस-ओ-मेहर से लबरेज़ हमदम अपना था कि बेशतर वो हमारा था कम-कम अपना था किया जो तज्ज़िया निकला न जाने किस किस का हमेशा जिस को ये समझा किए ग़म अपना था न था तुम्हारी मोहब्बत में क़ाएदा कोई न कारोबार-ए-वफ़ा ही मुनज़्ज़म अपना था रसाई क्यों न हुई ता-ब-कू-ए-यार अगर नियत ब-ख़ैर इरादा मुसम्मम अपना था किसी की ज़ात न गुमराह कर सकी हम को कि अपनी ज़ात पे ईमान मोहकम अपना था ख़ुदा को जाना है इंसान को न पहचाना अगरचे फ़र्ज़ यही इक मुक़द्दम अपना था हमारी सल्तनत-ए-इश्क़ की हुदूद न पूछ जो रास्त क़द था कि गेसू-ए-पुर-ख़म अपना था कुछ इस तरह हुई तक़्सीम बाग़-ए-हस्ती की तुम्हारा ख़ंदा-ए-गुल अश्क-ए-शबनम अपना था वो शख़्स ही मिरी पहचान बन गया 'शौकत' कभी जो दोस्त था अपना न महरम अपना था