ख़ुर्शीद-रू के महर की जिस पर निगाह हो ताले उसी का ख़ल्क़ में रख़्शंदा-माह हो दुश्मन हैं दीन ओ दिल के बुताँ देख बे-ख़बर इस तरह कीजो रब्त कि जिस में निबाह हो हरगिज़ न ऐब-ए-हुस्न कहे किस के मुँह पे साफ़ कर आईना मिरा दिल-ए-रौशन निगाह हो रहता है दिल तो उस के ज़नख़दाँ के चाह बीच नीं है बईद उस को भी गर दिल की चाह हो आसाँ सिरात-ए-हश्र से हो एक पल में पार गर साथ 'इश्क़'-ए-आसी के फ़ज़्ल-ए-इलाह हो