ख़ुश रहा जाए न रंजूर हुआ जाता है दस्तरस से मिरी क्या दूर हुआ जाता है हाथ इक ज़ख़्म लगा था जो रह-ए-उल्फ़त में पास मंज़िल के वो नासूर हुआ जाता है मुँह के बल ख़ाक पे ग़श खा के गिरा तो ये खुला फ़ाक़ा-मस्ती से भी मख़मूर हुआ जाता है अक़्ल कहती है कि हालात से समझौता कर और ये दिल शह-ए-मैसूर हुआ जाता है आइनो पूछ लो आकर मिरे दिल से कैसे संग-बारी के बिना चूर हुआ जाता है जाने क्या खींच के लाई है मिरी बीनाई पास वाला भी बहुत दूर हुआ जाता है इक ज़रा नूर की बारिश के गिरे क्या क़तरे कोह-ए-ज़ुल्मात भी अब तूर हुआ जाता है रौशनी हम ने तो सूरज की निचोड़ी 'शहबाज़' चेहरा क्यों चाँद का बे-नूर हुआ जाता है