जहाँ की क़ैद से वाबस्ता थी नजात मिरी मिरी हयात में ज़िंदा रही वफ़ात मिरी जो तुझ से बिछड़ा तो मिट जाएगा वजूद मिरा तिरे वजूद में बस्ती है काएनात मिरी क़लम भी तोड़ दो काग़ज़ भी फाड़ दो मेरा रक़म हवा पे हो जाएँगी ग़ज़लियात मिरी लबों पे बाँध के शोहरत लिया है बोसा क्या हर इक ज़बाँ पे उछलने लगी है बात मिरी अजल भी आती नहीं मेरी दस्त-गीरी को सो रोज़ जाँ मिरी लेती है अब हयात मिरी हवस की आग के दरिया से मुझ को बचना है भले ही प्यास से मर जाएँ ख़्वाहिशात मिरी सभी सहूलतें मिलती हैं बस सुहूलत से पे काम आती हैं मुश्किल में मुश्किलात मिरी