ख़ुशबुओं का शहर उजड़ा घर से बे-घर हो गए बादशाहत हाथ से निकली गदागर हो गए तीरगी में जा पड़े रौशन तक़ाज़े सुब्ह के झूट सच्चे थे जभी लोगों को अज़बर हो गए जितने अर्से हम रहे ख़ुद-सर अना के ज़ेर-ए-पा ज़र्रे सूरज बन गए क़तरे समुंदर हो गए था क़ुसूर अपना यही बस आइना शाने पे था चेहरे क्या उभरे सभी आपे से बाहर हो गए जाने किस की बद-दुआ' 'परवेज़'-रहमानी लगी देखते ही देखते अहबाब पत्थर हो गए