ख़ुशी देखते हैं न ग़म देखते हैं हम अंदाज़-ए-अहल-ए-करम देखते हैं हर इक शय में जज़्ब-ए-तसव्वुर के सदक़े तुम्हीं को तुम्हारी क़सम देखते हैं सबा सुब्ह-दम जाने क्या कह गई है गुलों की भी आँखों को नम देखते हैं झुका देते हैं हम जबीन-ए-अक़ीदत जहाँ उन का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं तिरी चश्म-ए-मय-गूँ के मय-ख़्वार हैं जो वो कब जानिब-ए-जाम-ए-जम देखते हैं ये अहल-ए-मोहब्बत का तर्ज़-ए-नज़र है सितम में भी रंग-ए-करम देखते हैं 'तरब' जादा-पैमा-ए-उल्फ़त जहाँ में कहाँ राह के पेच-ओ-ख़म देखते हैं