ख़ुशी के भी ग़म में निशाँ देखता हूँ अंधेरे में परछाइयाँ देखता हूँ वहीं उन को मैं बे-तकाँ देखता हूँ बग़ैर आँख उठाए जहाँ देखता हूँ निगाह-ए-तजस्सुस से होता हूँ नादिम मैं जब ख़ुद में उन को निहाँ देखता हूँ अदब कर मज़ाक़-ए-नज़ारा अदब कर नज़र को भी क्यों दरमियाँ देखता हूँ जबीं की तरफ़ आस्ताँ बढ़ रहा है ये मैं आज ख़ुद को कहाँ देखता हूँ वो जब देखते हैं कभी मेरी जानिब तो मैं जानिब-ए-आसमाँ देखता हूँ जो अपनी जगह ख़ुद क़फ़स बन गए हैं कुछ ऐसे भी मैं आशियाँ देखता हूँ बहुत रहबर-ओ-रहनुमा आए लेकिन जहाँ था वहीं कारवाँ देखता हूँ नतीजा भी जिस का 'शिफ़ा' इम्तिहाँ है अजब आज का इम्तिहाँ देखता हूँ