जो मरहला-ए-सख़्त का हामिल नहीं होता वो ज़िंदगी भर फ़ाएज़-ए-मंज़िल नहीं होता मजबूर पे मायूस पे ये जौर-ए-मुसलसल मजबूर के मायूस के क्या दिल नहीं होता अश्कों पे है बेजोड़ सा ये अक्स-ए-तबस्सुम आईने के आईना मुक़ाबिल नहीं होता क्यों ज़िंदगी बेगाना हुई जाती है मुझ से अब दर्द से शायद अदब-ए-दिल नहीं होता नादान तू ख़ुद अपनी जगह आप ही मंज़िल क्यों कहता है मैं वासिल-ए-मंज़िल नहीं होता तरतीब दिया जाता है ये अज़्म-ए-रवाँ से तूफ़ान में पिन्हाँ कभी साहिल नहीं होता परवाने 'शिफ़ा' इस लिए खा जाते हैं धोका नज़रों में मआल-ए-शब-ए-महफिल नहीं होता