ख़ुशी ख़ुशबू ख़ुदा की रो रही है क़ज़ा किस की कहानी हो रही है हमारे शहर की तस्वीर है ये क़यामत बाल खोले सो रही है लहू का नाम सुनते ही सफ़ेदी हथेली बे-इरादा धो रही है वो मेरा अश्क या तेरी हँसी हो कशिश हर शय बराबर खो रही है न जाने किस ख़ता पर अपनी बस्ती जनाज़े पर जनाज़ा ढो रही है कही जाती नहीं 'ख़ुरशीद-अकबर' ग़ज़ल में अपनी काविश जो रही है