ख़्वाब में किस तरह देखूँ तुझ को बे-ख़्वाबी के साथ जम्अ' आसाइश कहाँ होती है बेताबी के साथ कर दिया आँखों के रोने ने मिरे दिल को ख़ुनुक कब तलक गर्मी करूँ इस मर्दुम-ए-आबी के साथ ग़ुंचा रंगीनी को अपनी चाहिए तह कर रखे उस को क्या निस्बत है उन लब-हा-ए-उन्नाबी के साथ पोंछते उस मुँह के हो जाता है सब रंगीं रुमाल गुल कहाँ होता है ऐसे रंग-ओ-शादाबी के साथ मुफ़्त नईं लेते वफ़ा को शहर-ए-ख़ूबाँ में 'यक़ीं' किस क़दर बे-क़द्र है ये जिंस नायाबी के साथ